पदनाम,बाँका, बिहार
जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग में बीते सप्ताह बुधवार की रात को संदिग्ध चरमपंथियों ने एक प्रवासी मज़दूर की गोली मारकर हत्या कर दी.
पुलिस के मुताबिक़- मारे गए व्यक्ति का नाम राजा शाह (राजू शाह) था, जो बिहार के बाँका ज़िले के नवादा बाज़ार गाँव के रहने वाले थे.
बीते कुछ साल में कश्मीर में दर्जनों प्रवासी मज़दूरों को निशाना बनाकर उनकी हत्या कर दी गई है.
भारत के बिहार राज्य के लोग रोज़ी-रोटी की तलाश में देश और दुनिया के कई इलाक़ों में पलायन करते हैं.
भारत में आमतौर पर बिहार के प्रवासी दिल्ली, मुंबई और अन्य बड़े शहरों की तरफ जाते हैं. लेकिन बिहार के कुछ इलाक़ों के लोगों के लिए कश्मीर रोज़ी-रोटी के जुगाड़ के लिए सबसे पसंदीदा जगह है.
राजा शाह की माँ नीरा देवी बताती हैं, “वो दस साल से कश्मीर में रह रहा था. पकौड़े बेचकर कमाता खाता था. बिहार में कोई काम नहीं था. राजा अनंतनाग में रहता था. घर पर पैसे तो नहीं भेज पाता था, लेकिन उनकी ज़िंदगी ठीक से चल रही थी.”
राजा शाह 20 अप्रैल को एक रिश्तेदार की शादी में गाँव आने वाले थे, लेकिन गाँव आने के तीन दिन पहले 17 अप्रैल को उनकी हत्या कर दी गई. राजा के पिता अब जीवित नहीं हैं और कुछ साल पहले उनके बड़े भाई की भी मृत्यु हो गई थी.
राजा शाह की भाभी सोनी देवी के मुताबिक़- 'गाँव में कमाई नहीं होने की वजह से वो अपने साढ़ू के साथ कश्मीर गए थे, वहाँ रोज़ चार से पाँच हज़ार का कारोबार हो जाता था और इसमें अच्छी कमाई हो जाती थी. अब उनके बीवी-बच्चों का क्या होगा, कोई नहीं जानता.'
राजा शाह के शव का अंतिम संस्कार कश्मीर में ही कर दिया गया. दरअसल काग़ज़ी कार्रवाई और गाँव तक पहुँचने में लंबा वक्त लगने की आशंका में शव को गाँव तक नहीं लाया जा सका. घरवालों का ये भी दुख है कि उन्हें राजा के अंतिम दर्शन तक का मौक़ा नहीं मिला.
बाँका ज़िले के नवादा बाज़ार गाँव के ही रहने वाले और राजा शाह के पड़ोसी दिगंबर शाह भी साल 2005 से कश्मीर में रह रहे थे. लेकिन साल 2019 में कश्मीर से अनुच्छेद 370 ख़त्म होने के बाद वो वापस बिहार के अपने गाँव आ गए.
दिगंबर शाह के मुताबिक़ 370 हटने के बाद उन्हें एक महीने तक घर में क़ैद रहना पड़ा और मौक़ा मिलते ही कश्मीर छोड़ दिया.
दिगंबर शाह भी श्रीनगर में पकौड़े की दुकान लगाते थे. वो श्रीनगर के लाल चौक के पास ही रहते थे.
दिगंबर शाह बताते हैं, “370 ख़त्म होने के बाद एक महीने तक घर में बंद रहना पड़ा उसके बाद डर बहुत लगता था, इसलिए वहाँ से चला आया. फिर मन किया जाने का क्योंकि वहाँ हर रोज़ क़रीब सात आठ सौ की कमाई हो जाती थी, मकान मालिक भी आने के लिए फ़ोन करते हैं, लेकिन अब नहीं जाऊंगा.”
दिगंबर शाह और राजा शाह का कश्मीर से कई बार एक साथ गाँव आना-जाना हुआ था. दिगंबर अपने साथियों के साथ कश्मीर पहुँचे थे. श्रीनगर में दोपहर तक ठेले को तैयार कर दुकान लगाना और रात 10 बजे तक वापस लौटना उनकी रोज़ की दिनचर्या थी.
बाँका ज़िले के इस इलाक़े में बड़ी संख्या में परंपरागत रूप से पकौड़े और मिठाई का कारोबार करने वाले परिवार रहते हैं. इसी इलाक़े में ‘पड़घड़ी’ नाम का एक गाँव है. इस गाँव को 'कश्मीरी बिहारियों' का गाँव भी कहा जाता है. यहाँ के लोग बड़ी संख्या में रोज़ी-रोटी की तलाश में कश्मीर में रहते थे.
गाँव वालों के मुताबिक़ यह गाँव मूल रूप से हलवाइयों और सोनार का गाँव है और बेहतर जीवन जीने के लिए गाँव के क़रीब क़रीब 150 घरों के लोग कश्मीर के अलग-अलग इलाक़ों में रह रहे हैं.
हमने पड़घड़ी गाँव में कई लोगों से बात करने की कोशिश की, लेकिन ज़्यादातर लोग कश्मीर के हालिया माहौल से घबराए हुए हैं. वो अपनी पहचान और कश्मीर को लेकर बात करने को तैयार नहीं हुए. उन्हें डर है कि पहचान ज़ाहिर होने के बाद उनके परिवार को कश्मीर में निशाना बनाया जा सकता है.
कश्मीर में बिहारियों का जीवन
इस गाँव में हमारी मुलाक़ात देवेंद्र शाह से हुई. उनकी आँखों के आंसू अब तक नहीं सूखे हैं. देवेंद्र शाह के 22 साल के बेटे अरविंद शाह की हत्या श्रीनगर में 16 अक्टूबर 2021 को कर दी गई थी.
देवेंद्र शाह आरोप लगाते हैं, “जब बेटे की हत्या हुई तो सरकार ने वादा किया था कि 12 लाख रुपये देंगे, परिवार में किसी को सरकारी नौकरी देंगे और ज़मीन देंगे. हमें मिले केवल 12 लाख रुपये. अब मेरा दिमाग़ भी ठीक से काम नहीं करता है.”
अरविंद शाह श्रीनगर में गोल गप्पे की दुकान लगाते थे. वो साल 2004 से कश्मीर में रह रहे थे. घरवालों का आरोप है कि कुछ लोगों ने अरविंद से अपना आधार कार्ड दिखाने को कहा और फिर गोली मार दी.
अरविंद के भाई डब्लू कुमार शाह भी साल 2000 से कश्मीर में रहे रहे थे. डब्लू ने पहले वहाँ नौकरी की फिर रेहड़ी पर अपना कारोबार शुरू किया. इससे उन्हें अच्छी कमाई हो जाती थी. उनके मुताबिक़ गाँव या बिहार में रोज़गार का कोई साधन नहीं है, इसलिए कश्मीर में रह रहे थे.
डब्लू कुमार के मुताबिक़ “कश्मीर में कमाई तो हो जाती थी, लेकिन शांति कभी नहीं मिली. साल 2016 में बुरहान वानी की मौत के बाद कश्मीर घाटी का माहौल बहुत ख़राब हो गया था और मौक़ा मिलते ही साल 2017 में मैं वापस बिहार लौट गया.”
डब्लू कुमार शाह के मुताबिक़- साल 2016 में बुरहान वानी की मौत के बाद उन्होंने कश्मीर से लौटने का फ़ैसला किया.
हिज़्बुल मुजाहिदीन कमांडर बुरहान वानी की मौत साल 2016 में एक मुठभेड़ में हुई थी. सोशल मीडिया के ज़रिए बुरहान वानी की लोकप्रियता कश्मीरी युवाओं के बीच काफ़ी ज़्यादा थी. वानी की मौत के बाद कश्मीर में उग्र प्रदर्शन और हिंसक झड़पें भी हुई थीं, जिसमें कई लोगों की मौत हुई थी.
डब्लू कुमार के मुताबिक़- 'कश्मीर के लोगों को डर लगता है कि बिहार के लोग वहाँ बस जाएंगे, इसलिए वो निशाना बनाकर हत्या कर देते हैं, कश्मीर के लोग नहीं चाहते हैं कि बाहर का कोई आदमी वहाँ जाकर बस जाए.'
डब्लू ने हमें बताया कि कश्मीर पुलिस भी बीच-बीच में जाँच करती है वहाँ कौन कहाँ से आया है और पुलिस लोगों के आधार कार्ड की कॉपी भी जमा कराती है.
इसी गांव में हमारी मुलाक़ात अरविंद शाह से हुई जो कश्मीर में रहते हैं, लेकिन पिछले दो महीने से बिहार में हैं. अरविंद शाह पुलवामा में पकौड़े का ठेला लगाते हैं. क़रीब 15 साल से कश्मीर में रह रहे हैं. पुलवामा में उनके परिवार के अन्य लोग भी रहते हैं.
अरविंद अपने चाचा के पीछे कश्मीर पहुँचे थे और वापस कश्मीर जाने वाले हैं. उनके चाचा और अन्य कई रिश्तेदार बिहार वापस भी लौट चुके हैं.
अरविंद शाह कहते हैं, “यहाँ कोई काम धंधा नहीं है. कश्मीर में कमाई हो जाती है. मुझे कभी वहाँ डर नहीं लगा. डर लगता तो कब के भाग जाते. कश्मीर की कमाई से हमारी ज़िंदगी बेहतर हुई है.”
डर से ज़्यादा रोज़गार की चिंता
बिहार के बाँका ज़िले का पड़घड़ी गाँव
अरविंद शाह के मुताबिक़ उनके कई जानने वाले कश्मीर में रहते हैं. कोई वहाँ मज़दूरी करता है तो कोई छोटा मोटा कारोबार करता है. अरविंद ने बताया कि अब तक उन्हें कश्मीर में कभी किसी तरह के रजिस्ट्रेशन या पहचान बताने की ज़रूरत नहीं पड़ी है.
इस गाँव के कई लोगों का कहना है कि फ़िलहाल कश्मीर में बाहर के कम लोग हैं, इसलिए व्यवसाय में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है. वहाँ इतनी कमाई भी हो जाती है कि बच्चों को अच्छे कपड़े, अच्छा भोजन और स्कूली शिक्षा भी दे सकते हैं.
बिहार के सीतामढ़ी इलाके के रहने वाले अलाउद्दीन कई साल से कश्मीर में मज़दूरी का काम करते हैं.
कश्मीर में प्रवासी मज़दूरों की हत्या की कई घटना होने के बावजूद भी अलाउद्दीन कश्मीर से कभी भागे नहीं, लेकिन इस तरह की घटना से वो चिंतित ज़रूर हो जाते हैं.
कश्मीर में मज़दूरों की कमाई अच्छी होती है लेकिन डर भी बना रहता है.
ये पूछने पर कि कश्मीर में इस तरह की घटना होने के बावजूद आप लोग फिर भी कश्मीर क्यों आते हैं, तो उनका जवाब था- "मज़दूरी तो हमें अपने राज्य में भी मिल सकती है, लेकिन जितनी कश्मीर में मिलती हैं, उतनी बिहार में नहीं है. कश्मीर में हर दिन किसी न किसी तरह का काम मिल ही जाता है. कश्मीर में मज़दूरी भी बिहार की तुलना में ज़्यादा है."
मार्च और अप्रैल के महीनों में प्रवासी मज़दूर कश्मीर का रुख़ करना शुरू कर देते हैं. बिहार के मुज़फ्फ़रपुर के रहने वाले मोहम्मद कामरान साल 2010 से हर साल कश्मीर में मज़दूरी करने के लिए आते हैं.
कामरान बताते हैं कि उन्हें अनंतनाग की घटना के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है.
कामरान का कहना था कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं है कि जिन प्रवासी मज़दूरों को मारा जाता है वह ‘टार्गेटेड किलिंग’ है या नहीं.
यह पूछने पर की कश्मीर में इस तरह की घटना होने बावजूद भी आप कश्मीर क्यों आते हैं तो उनका कहना था- "कश्मीर में मौसम ठंडा होता है. मेरे हिसाब से मौसम ही एक बड़ी वजह है. कमाई की बात करें तो उसमें कोई बड़ा अंतर नहीं है. जितना कश्मीर में कमाते हैं उतना तो अपने राज्य में भी कमा सकते हैं."
वह ये भी बताते हैं कि जब घरवालों को इस तरह की घटना की ख़बर होती है तो वो चिंतित हो जाते हैं और कश्मीर से वापस आने को कहते हैं.
बीबीसी के सहयोगी पत्रकार माजिद जहांगीर के साथ बातचीत में उन्होंने कहा- "कश्मीर में जब इस तरह की घटना होती है , तो चिंता होती है. कभी-कभी ये भी सोचते हैं कि कश्मीर छोड़कर चले जाएँ. फिर ये सोचते हैं कि चले जाएँगे तो घर परिवार कैसे चलाएंगे? यहाँ कभी हालात एकदम ठीक हो जाते हैं और कभी बिगड़ जाते हैं."
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