अपने
कुनबे को साथ लेकर दशकों तक राजनीति के शिखर पर रहने का जो मिसाल मुलायम
सिंह ने पेश किया है उसका कोई सानी नहीं। किसी दौर में एक परिवार से,
सांसदों और विधायकों का रिकार्ड जो यादव परिवार का रहा उसके आसपास कोई नहीं
फटकता।
भारतीय राजनीति में मुलायम के दांव को पटखनी देना किसी घाघ नेता के लिए भी
आसान नहीं रहा। कोई भले ही मुलायम पर यह आरोप लगाए कि उनका समाजवाद परिवार
के अंदर सिमट कर रह गया है। लेकिन अपने कुनबे को साथ लेकर दशकों तक राजनीति
के शिखर पर रहने का जो मिसाल मुलायम सिंह ने पेश किया है उसका कोई सानी
नहीं। किसी दौर में एक परिवार से, सांसदों और विधायकों का रिकार्ड जो यादव
परिवार का रहा उसके आसपास कोई नहीं फटकता। 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट
पार्टी (एसएसपी) के टिकट पर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कुश्ती के मैदान से
उतरने के बाद मुलायम सिंह यादव ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह कल्याण
सिंह सहित अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की श्रेणी में आने वाले समुदायों से
राज्य में उस वर्ष जीतने वाले पहली बार जीतने वालों में से थे।
यदि राज्य के कृषक समुदायों को एक साथ लाने वाले सपा ने 44 सीटें जीती थीं,
तो 98 सीटें भाजपा के पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ के खाते में गई थी। 60 के
दशक में लोहिया ने ही कांग्रेस और ‘हिंदुस्तानी वामपंथ’ के ब्राह्मणवादी
चरित्र पर सवाल करते हुए पहली दफा पिछड़ों के आरक्षण की मांग करते हुए नारा
दिया था ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’। बहुत बाद में,
जब वे 5 दिसंबर, 1989 को मुलायम उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तो उनके
उदय ने यह सुनिश्चित कर दिया कि कांग्रेस राज्य में कभी भी सत्ता में वापस
नहीं आएगी। सपा द्वारा उभारी गई राजनीति से ऐसा फैलाव हुआ था कि राजनीतिक
रूप से महत्वपूर्ण राज्य की बागडोर तब से बड़े पैमाने पर उन नेताओं के साथ
रही है जो उस समय की उसकी ही शाखाओं के रूप में बड़े हुए थे।
यूपी के समानांतर बिहार में बदलाव की बयार एक दशक बाद बही और जयप्रकाश नारायण से प्रेरित छात्र आंदोलन से निकलकर लालू यादल राज्य़ के मुख्यमंत्री बने। यदि लालू के नेतृत्व में यादवों के प्रभुत्व ने बिहार में नीतीश को पिछड़े वर्गों के बीच अन्य लोगों के प्रतिनिधि के रूप में उभारा, तो इसी तरह की भावना ने दलितों को बसपा के लाकर खड़ा कर दिया। अब भी, जबकि भाजपा दोनों राज्यों में अकेली सबसे प्रभावशाली ताकत है, उसने केवल सावधानीपूर्वक सोशल इंजीनियरिंग के द्वारा ही कई गैर-उच्च जाति के नेताओं को पार्टी संगठन और उसकी सरकारों के शीर्ष पर लाकर यह हासिल किया है। एक दौर ऐसा भी था जब 1967 के चुनावों में अपनी सीट जीतने वाले मुलायम 1969 के मध्यावधि चुनाव में एसएसपी उम्मीदवार के रूप में हार गए। 1977 के चुनावों में जनता पार्टी ने जीत हासिल की और केंद्र में सरकार बनाई। चौधरी चरण सिंह ने केंद्र का रूख किया। अपने अन्य शिष्य राम नरेश यादव (उस समय आजमगढ़ के एक सांसद) को यूपी की राजनीति के लिए अपने प्रतिस्थापन के रूप में चुना। मुलायम ने सहकारिता, पशुपालन और ग्रामीण उद्योग मंत्री के रूप में शपथ ली। लेकिन यूपी में जनता पार्टी की दो सरकारें (राम नरेश यादव और फिर बनारसी दास की) कुल मिलाकर तीन साल चलीं, और 1980 के चुनाव ने इंदिरा गांधी को सत्ता में लौटाया। चरण सिंह ने जनता पार्टी के अपने गुट का नाम बदलकर लोक दल कर दिया और मुलायम ने लोक दल एमएलसी के रूप में सदन में जगह बनाई।
वीपी सिंह को फर्जी एनकाउंटर्स के जांच के लिए किया मजबूर
जून 1980 और जुलाई 1982 के बीच, यूपी के सीएम कांग्रेस नेता वी पी सिंह
थे, जो एक शाही विरासत वाले राजपूत थे। मुलायम ने इस अवधि में ज्यादातर
गैर-उच्च जाति समुदायों के डकैतों की मुठभेड़ में हत्याओं की शुरुआत देखी।
विधान परिषद में लोक दल के विपक्ष के नेता, मुलायम ने राज्य भर में "फर्जी
मुठभेड़ों" में कथित तौर पर मारे गए 418 लोगों की एक सूची तैयार की और इसे
मीडिया और जनता में उठाया। उस समय के तीन सबसे प्रमुख गिरोहों का नेतृत्व
क्रमशः एक ठाकुर, एक मल्लाह और एक यादव कर रहे थे, लेकिन सरकार द्वारा
वंचित समुदायों को निशाना बनाने की मुलायम की कहानी को जोर मिला। वीपी सिंह
का यह आरोप कि कुछ राजनेता चुनावों में अपनी ही जातियों के डकैतों से मदद
लेते हैं, टिक नहीं पाया और उनकी सरकार को अंततः मुलायम द्वारा उजागर किए
गए कई मुठभेड़ों की जांच का आदेश देने के लिए मजबूर होना पड़ा।
इसे भी पढ़ें: रक्षा मंत्री रहते हुए मुलायम सिंह यादव ने ही लिया था बड़ा
फैसला, जिस कारण शहीदों के घर तक पहुंचता है उनका पार्थिव शरीर
कांग्रेस के समर्थन से बचाई सरकार
1987 में चरण सिंह के निधन के बाद, मुलायम लोक दल के भीतर सबसे शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे। उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ और भाजपा के राम मंदिर आंदोलन के खिलाफ राज्य भर में एक अभियान शुरू किया। 1988 में उनकी रथ यात्रा पर कई जगहों पर हमले हुए। वी पी सिंह अब राष्ट्रीय राजनीति में राजीव गांधी के लिए मुख्य चुनौती के रूप में उभरे, जनता दल का नेतृत्व कर रहे थे। अक्टूबर 1990 में, भाजपा ने केंद्र में वीपी सिंह सरकार के साथ-साथ यूपी में जनता दल सरकार से समर्थन वापस ले लिया। मुलायम ने चंद्रशेखर की ओर रुख किया और कांग्रेस के समर्थन से उनकी सरकार बचाई। अक्टूबर 1992 में उन्होंने अपनी समाजवादी पार्टी बनाई।
2 बार पीएम बनते-बनते रह गए
अपने 55 साल के राजनीतिक करियर में मुलायम ने यूपी के मुख्यमंत्री से लेकर देश के रक्षा मंत्री तक का सफर तय किया। कई बार उन्होंने अपने फैसले से भी सभी को चौंकाया। यही वजह है कि एक बार नहीं बल्कि दो बार वो देश के प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए। 90 के दशक में यूपी की सत्ता से हटने के बाद मुलायम सिंह के राजनीतिक भविष्य को लेकर चर्चाएं शुरू हो गईं थीं। 1996 के लोकसभा चुनाव में सपा को 17 सीटें हासिल हुई। कांग्रेस के खाते में 141 सीटे आई तो बीजेपी को 161 सीटें मिली थी। अटल सरकार 13 दिन में ही गिर गई। जिसके बाद कांग्रेस ने सरकार बनाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। बंगाल के सीएम ज्योति बसु के नाम पर चर्चा हुई लेकिन सहमति नहीं बन पाई। वाम दल के नेता हरकिशन सिंह सुरजीत ने मुलायम सिंह के नाम की पैरवी की। मुलायम के नाम पर सहमति भी बन गई थी। कहा जाता है कि शपथ ग्रहण का समय तक तय हो चुका था। लेकिन अचानक मामला बिगड़ गया। कहा जाता है कि शरद यादव और लालू प्रसाद यादव ने रातो रात मुलायम सिंह का पत्ता काट दिया। जिसकी वजह से मुलायम पीएम बनते बनते रह गए। फिर साल 1999 में मुलायम सिंह के पास दोबारा प्रधानमंत्री बनने का मौका आया। लेकिन इसके बाद फिर दूसरे नेताओं ने उनके नाम का समर्थन नहीं किया।
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