कारतूस
को अंग्रेज़ी में कार्ट्रिज, फ्रांसीसी में एतुइ पुर्तगाली में कारतूचो और
फ़ारसी में फ़िशंग कहा जाता है। आम बोलचाल में फ़्रांसीसी इसे कारतूस भी
कहते हैं। यही शब्द परिवर्तित होकर हिन्दी, उर्दू व अन्य भारतीय उपमहाद्वीप
की भाषाओं में आया है। हिन्दी में इसे गोली की आम शाब्दिक प्रासंगिकता
हासिल है। 1845 में पहली रिमफायर धातु कारतूस का आविष्कार फ्रांसीसी
लुइस-निकोलस फ़्लोबर्ट ने किया था। उनके कारतूस में एक टक्कर टोपी शामिल थी
जिसमें शीर्ष पर एक गोली लगी हुई थी। संभवतः जब पहली बार कारतूस का प्रयोग
करने के लिए गोली दागी गई होगी तो लगा होगा की यह सुरक्षात्मक क्षेत्र के
लिए बड़ा आविष्कार होगा। लेकिन किसे पता था यही कारतूस लोकतंत्र के लिए एक
बड़ा खतरा साबित हो सकता है।
अब्राहम
लिंकन की परिभाषा के परिधि में लोकतंत्र....!!! जनता का, जनता के लिए और
जनता द्वारा शासन - प्रामाणिक प्रासंगिक होते हुए भी विरोध जनता के द्वारा
ही उत्पन्न होगा। जहाँ लोकतंत्र में जनता ही सत्ताधारी होती है, उसकी
अनुमति से शासन होता है। लेकिन शासन की चाबी सौंपते वक्त जनमत के रूख का
परवाह किये बगैर कुछ विरोध के स्वर इतने नकारात्मक हो जायेंगे की हल के
मर्म का मार्ग बंदूक के आवाज़ से तलाशे जायेंगे।
जहाँ विचारों के मतभेद में विचारधाराओं की लड़ाई इतनी बड़ी हो
जायेगी की सत्याग्रह के स्थान पर आगजनी और पथराव के उपकरणों को प्रासंगिक
होना पड़ जायेगा। शायद ही किसी दर्शनशास्त्र ने विचार किया होगा। लेकिन ये
लहर चल निकला है। अपनी बात को मनवाने का तरीका या अपने रोष को प्रतिशोध में
तब्दील करने वाली एक विचित्र विचारधारा का जन्म हो चुका है। जो अपनी
उपस्थिति बंदूक के नोक से निकलने वाले गोलियों के धमक से दर्ज करा रहे हैं।
समसामयिक घटना चक्र में इस बात के पुख्ता सबूत मिल रहे हैं की लोकतंत्र
में विरोध का पर्याय बन गए हैं शस्त्र हाथ, जो अपनी बात को सही साबित करने
के लिए फायर को सरल संसाधन मानने पर आमादा है। वे ये नहीं देखते की उनका
कृत्य या प्रतिक्रिया का असर कितना प्रतिकूल और वैमनस्यता पूर्ण है। ऐसे
लोग लोकतंत्र में गन-तंत्र की सत्ता को स्थापित करने की ओर आमादा है।
सीना चीरती गोली संभवतः जातिवाद, धर्मवाद, रंगभेद, वैमनस्य,
विरोध या अवरोध नहीं देखती है। उसका तो कार्य सिर्फ वेधन करना है। लेकिन
गोली के चलने के पूर्व बंदूकों को थामने वाले हाथों की मानसिकता और
मनोविचार क्या इतने दुर्बल हैं कि समस्या का हल सिर्फ इहलीला को छिनकर ही
पूरी होगी। ये गोली जो धर्म नहीं पूछती मगर चलाने वाले की मनसा में यदि
किसी भी प्रकार का द्वेष है, तो निश्चय ही विरोध पापग्रही हो। लेकिन क्या
मानवता इतने गर्त पर पहुँच चुकी है। या फिर लोगों में विरोध के लिए सिर्फ
बंदूकें ही रास्ता बना सकती है? यह एक बड़ा प्रश्न है।
इस पृथ्वी पर बुद्धिजीवी कहलाने की प्रायिकता क्या सिर्फ इतना
की मानवता को दलदल में ढ़केल कर अपनी परिपक्वता के निशान हम गोलियों के
खोखल और रक्त से रंजित छीटों के ग्राफ में मापन करें। या फिर विरोध को
सार्थक और सत्यनिष्ठ बनाने के लिए सर्वस्व न्योछावर कर सत्य के मार्ग में
चलकर अहिंसा के रास्ते हल तलाशने का प्रयास करें। कारतूसों के रास्ते किस
भयावह हल की तलाश में कुछ लोग भटक गए हैं। उनकी मानसिकता का फ्लोर टेस्ट
होना तो निश्चय ही बाकी है। लेकिन यदि गन-तंत्र के हावी होते उदाहरणों से
आम लोगों में जो भर व्यापक रूप से बढ़ रहा है। इसकी कल्पना संभवतः वे लोग
ही नहीं कर पाते हैं जिनके हाथों में बंदूकें तनी हुई है। वरना, आम लोगों
की रायशुमारी तो सिर्फ इतना है की बात अगर कोई उलझे तो सुलझा लेंगे, तुम
समस्या के मर्म तो खोलों। कुछ गम हम भी बाँट लेंगे।
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