युग के पुरोधा--कबीर जी, (कबीर जयंती 24 जून)

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             महात्माओं का जन्म विशेष कार्य सिद्धि के लिये होता रहा है। कबीर का जन्म भी समय की विशेष आवश्यकताओ की पूर्ति के लिये हुआ था। वर्षो बीत जाने पर भी कबीर के पद,सिद्दांत आज भी प्रासंगिक है। उनके सिद्धान्तों से एक नए दशा व दिशा को प्राप्य किया जा सकता है। भारत की लक्ष्मी पर लुब्ध मुसलमानो के पांव जमने लग गए थे, सहाबुद्दीन गोरी, कुतुबुद्दीन ऐबक, अल्लाउद्दीन, तुगलक, तैमूर जैसे आक्रांताओं ने देश को उजाड़ कर नैराश्य की चरम सीमा तक पहुंचा दिया था। ऐसे समय मे कबीर का जन्म हुआ। और कष्टप्रद जनता को अनीश्वरवाद की तरफ लेकर निर्गुण निराकार ब्रह्म की भक्ति मार्ग की ओर प्रवित्त किया।

          मान्यता है कि कबीर का जन्म संवत 1456 में काशी में एक विधवा ब्राह्मण कन्या से हुआ। परंतु अलग-अलग विद्वानों ने अपना अलग ही मत दिया है। इनके जन्म के विषय में अब तक कोई निश्चित बातें अभी तक ज्ञात नही हुई। कबीर के जन्म के विषय मे यह पद्य प्रसिद्ध है--

 चौदह सौ पचपन साल भए, चंद्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट भए।


इस पद्य को कबीर के प्रमुख शिष्य धर्मदास का कहा जाता है। 1455 ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा चन्द्रवार माना है विद्ववानों की गणना में नही आती। ध्यान से पढ़ने पर यह 1456 निकलता है, 1455 साल गए मतलब 1455 बीत गया है। 1456 को ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा चंद्रवार को ही पड़ती है। अतः 1456 को ही जन्म संवत सही लगता है।

           मान्यता अनुसार विधवा ब्राह्मण कन्या लोकोपवाद के भय से उसे लहर तालाब के किनारे डाल दिया गया।भाग्यवश कुछ ही क्षण पश्चात नीरू नाम का एक जुलाहा अपनी स्त्री नीमा के साथ आ रहा था। इस दंपति के कोई संतान नही था, बालक को देखकर पुत्र के लिये लालायित दंपत्ति के हृदय में चुभ गया और वे बालक का पालन पोषण कर माता पिता का कर्तव्य निभाने लगे।आगे चलकर यही बालक कबीरदास जी रूप में एक महान संत,समाज सुधारक, कवि भक्त हुए।


         यह भी एक किवंदती है कबीर जब भजन गा गाकर उपदेश देने लगे। कई लोगों ने कहा कि बिना गुरु के दीक्षा लिए उपदेश ठीक नही है, पहले गुरु बना लो। उस समय काशी में स्वामी रामानंद जी प्रसिद्ध महात्मा थे। एक दिन कबीर पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर सुबह से ही जा लेते,जब रामानंद जी स्नान कर वापस लौटे तो उसके पैर कबीर के सिर पर पड़ गया। जिस पर स्वामी जी के मुख से राम-राम निकल पड़ा। कबीर ने उनके पैर पकड़ लिये और कहा कि राम-राम का मंत्र देकर आप मेरे गुरु हुये। रामानंद जी से कोई उत्तर देते न बना और कबीर के गुरु रूप में अभी भी मान्य है। हालांकि रामानंद सगुण भक्ति मार्ग के गुरु थे,परंतु उनके शिष्य कबीर निर्गुण भक्ति मार्ग के सबसे बड़े भक्त हुये।


         कबीर के राम और रामानंद के राम से अलग थे। राम से उनका तात्पर्य निर्गुण ब्रह्म से है । उन्होंने ब्रह्म के लिये राम,रहीम,अल्ला, सत्यनाम,गोब्यंद, साहब,आप जैसे अनेक शब्दों का प्रयोग किया। उन्होंने कहा है--अपरंपार का नाऊँ अनंत। कबीर की रचनाओं में हिंदू-मुसलमानी भाव दोनो पाय जाते हैं। पढ़े-लिखे न होने के कारण भी उन्होंने सभी से शिक्षा ली है। मुसलमानी एकेश्वरवाद का विशेष स्थान रहा है। इनका ध्येय  हिंदू-मुस्लिम ऐक्य का था। यद्यपि कबीर के रचनाओं में भारतीय ब्रह्मवाद का पूरा ढांचा पाया जाता है, उनकी भावना इससे भी सूक्ष्म है। वे राम को सगुण-निर्गुण दोनो समझते थे।

       "अला एकै रूप उपनाया ताकी कैसी निंदा।
       ता नूर थै जग कीया कौन भला कौन मंदा।"

             मुसलमान दंपति के पालित होने पर भी कबीर मुख्यतः वैष्णव थे। परंतु सिद्दांत और व्यवहार का,कथनी और करनी का भेद वे पसंद नही करते थे। उन्होंने दोनों का मिश्रण कर अपनी निर्गुण भक्ति का विशाल भवन खड़ा किया। हिन्दू से अहिंसा, अवतार, ब्रह्मवाद सूफियों से प्रेम तत्व, मुसलमान से एकेश्वरवाद के भाव ले रखे हैं। 

 'हम न मरै मरिहैं संसारा, हम कूं मिल्या जियावन हारा।'


' हरि मरिहैं तौ हम मरिहैं, हरि न मरै हम काहे कूं मरिहैं।'


         भक्तिकाल के कवियों में कबीर का विशेष स्थान है, उन्होंने ईश्वर के ब्रह्मरूप का गुणगान किया व निर्गुण ब्रह्म के उपासक कहलाये। उनकी वाणी में पूजा पाठ के बाह्य आडम्बर की भर्त्सना की गई। वे  किसी भी आडंबर पर कहने से नही चुके। पंडित, मुल्ला व अन्य पर भी व्यंग्य कसते पाए गए।तभी तो कहा..

पाहन पूजे तो हरि मिले तो मैं पूजूँ पहाड़..

कंकर पत्थर जोड़ के मस्जिद लिए बनाके....

      वे ईश्वर को घट-घट में होने की बात करते थे।गुरु का स्थान श्रेष्ठ था। कबीर किसी धर्म विशेष के नही थे, उनके भक्तों में हिन्दू और मुसलमानों की बराबर की साझेदारी थी। प्रतिमा पूजन के विरोधी, आडंबरों के विरोधी, साफ व सीधे-सीधे कहे जाने वाले समाज सुधारक के रूप में विश्व मे प्रसिद्ध है। उन्होंने उलटबांसियों का भी अपने पदों में काम लिया जो उस समय से लेकर वर्तमान समय तक अपने कथन को विशिष्ट रूप में कहने में प्रयोग होते रहे। हिंदुओं के जन्म-मरण सिद्धान्त को मानते हुये कहा है--जनम अनेक गया अरु आया। माता के रूप में परमात्मा की भावना करते हुए वे कहते हैं---

"हरि जननी मैं बालक तेरा। कस नहि बकसहू अवगुण मेरा।"

           कबीर का प्रादुर्भाव ऐसे समय मे हुआ जब समाज अनेक बुराइयों से ग्रस्त था। छुआछूत, अंधविश्वास, रूढ़िवादी, मिथ्याचार, पाखण्ड का बोलबाला था।धार्मिक कट्टरता और संकीर्णता के कारण समाज का संतुलन बिगड़ रहा था। इस समय ऐसे महात्मा की जरूरत थी जो इन बुराइयों को मिटा सके। धर्मो के कट्टर समर्थको को  बिना भेदभाव के समझाने का प्रयास कर सके व सदाचरण का उपदेश देकर सामाजिक समरसता की स्थापना कर सके। कबीर का जन्म उस आवश्यकता की पूर्ति करने में समर्थ था। उन्होंने समाज सुधार का जितना अकेले प्रयास किया उतना तो उस समय के सभी लोगों ने भी मिलकर नही किया। कबीर ने--

1.राम-रहीम की एकता का प्रतिपादन,

2.जाति प्रथा का खंडन

3.मूर्ति पूजा का विरोध

4.जीव हिंसा का विरोध

5.हिंदू-मुस्लिम पाखण्ड का विरोध

6.छुआछूत का विरोध

          कबीर पढ़े लिखे नही थे,किंतु अनुभूति की सच्चाई विधमान था।उनका व्यक्तित्व क्रांतिदर्शी था। वे पहुँचे हुये ज्ञानी थे। उनका ज्ञान पोथियों का नही वरन सुनी-सुनाई बातों का बेमेल भंडार था। वे बहुश्रुत थे, सत्संग से वेदांत, उपनिषदों और पौराणिक कथाओं का ज्ञान हो गया था।परंतु वेदों का उन्हें ज्ञान नही था। संभवतः इसी कारण वश भी वेदों का विरोध किया करते थे। योग की क्रियाओं की जानकारी थी। इंगला, पिंगला,सुषुम्ना, षट्चक्रों आदि का उल्लेख किया है, परंतु वे योगी नही थे। मगहर में जाकर इसलिए मृत्यु का वर्ण किया क्योंकि वे दिखा देना चाहते थे कि मुक्ति काशी में ही नही मगहर में भी मिल सकती है। वे अपनी भक्ति के कारण अपने आपको मुक्ति का अधिकारी समझते हुए कहा है---

"जौ काशी तन तजै कबीरा तौ रामहि कहा निहोरा रे।"

        कबीर को हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने वाणी का डिक्टेटर तो बच्चन सिंह ने रैडिकल समाज सुधारक भी कहा। हर विद्ववानों ने अलग-अलग उपाधि से उन्हें विभूषित किया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में--"वह सिर से पैर तक मस्तमौला थे-बेपरवाह, दृढ़, उग्र,कुसुमादपि कोमल,वज्रादपि कठो। स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़,भक्त के सामने निरीह, कपट वेशधारी के आगे प्रचण्ड, दिल के साफ,दिमाक के दुरुस्त,भीतर से कोमल,बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वन्दनीय।" उनकी भाषा सधुक्कड़ी,पंचमेल खिचड़ी कही जाती थी। पंजाबी, अरबी,फ़ारसी,खड़ी बोली, बंगला,राजस्थानी, संस्कृत आदि के शब्दों का उपयोग किया है। छंदशास्त्र, अलंकार से अनभिज्ञ पर पदों में अलंकारों ने बरबस अपना स्थान बना ही लिया है। साखी सबद, रमैनी में उनके सभी रचनायें समाहित है। 
          आज भी कबीर विशेष प्रासंगिक है। उनकी रचनाओं को पढ़कर व समझकर सामाजिक समरसता की भावना लाई जा सकती है, जो अभी नीरस,असहयोग, स्वार्थपन,उद्दंडता की ओर द्रुतगति से बढ़ रही है। उनके हर पंक्ति से गहन शिक्षा ली जा सकती है। उन पदों को धारण करने की जिसमे योग्यता हो वही कर सकता है। कबीर आज उनकी फोटो की पूजा करने तक सीमित है, कोई पढ़ता नही उनको। वैसे भी कबीर किसी जाति विशेष का नही है वो सबका है। पढ़े लिखे समाज को उनके कार्य को आगे बढ़ाने की वर्तमान में सख्त जरूरत है। आज क्षणिक व्यवहार, बाजारवाद, नीरस जीवन मे इनकी आशा तो कमतर ही है। अगर हम साहस के साथ कबीर को अपनाएं तो नए व्यक्ति,समाज, देश की परिकल्पना कर सकने में कोई कठिनाई नहीं होगी।

 (आभार कबीर ग्रंथावली)

    


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